टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी

Monday, June 7, 2010

वजूद

शायद कभी बचपन में
या शायद आज भी कभी कभी
आईने के पीछे
हाथ बढाकर टटोलने कि कोशिश कि मैंने
कि ...............
अपना वजूद समझ में आ जाए .
लेकिन ...................
आइने में दिखने  वाले
उस पूर्णतया आभासी वजूद को
समझने के लिए
अपने आप को टटोलकर नहीं देखा
हाँ ....................
याद आता है
एकबार टटोलने कि कोशिश कि थी
तो ...........................
उसी आइने में
अपना ही अक्स
देखा न जा सका .

4 comments:

Dr Anil K Rai "Ankit" said...

आईने के पीछे
अपने वजूद को टटोलने की कोशिश
अपने को समझाने की कोशिश है मात्र
आँख बंद कर जैसे
रौशनी को तलाशना ...

वजूद को अपने
सच में पाना है तो उसे
आईने के पीछे टटोलने का बहाना नहीं
आईने के आगे उसे धर दबोचने की
हिम्मत करो ...

Dr Y P Singh said...

nice poem. call back

Tapovan Vashistha said...

सर मैंने आपकी कविता " वजूद " पढ़ी जिसे पढने के बाद मैं उलझन में पढ़ गया हु क्यूंकि मुझे लगता है की वजूद शब्द का अर्थ होता है आपका अपना अस्तित्व/आपकी अस्मिता जिसका पता या तो आप अन्य लोगो के बीच रहकर लगा सकते या फिर आपके के वजूद को इस बात के आधार पर जाना जा सकता है की आपके व्यक्तित्व और आप से जुडी किसी बात में कितना भार है तोह फिर भला ऐसे में किस तरह कोई व्यक्ति अपना वजूद आइने या दर्पण में

bipin rai said...

sir aap ne jo likha hai wo to yado ke desh me ak village hai