छात्रों का एक समूह परीक्षा में सख्ती बरते जाने पर परीक्षा हॉल से बहार आ गया और शोर करने लगा , कापियां फाडीं, इन्विगिलाटर को धक्के देकर बहार निकल दिया , और हद तो तब हुई जब एक उनुर्गल आरोप लेकर नारेबाजी करने लगे कि जिन्होंने १५०० रुपये दिए हैं उन्हें नक़ल कराई जा रही है और हमें नक़ल करने नहीं दिया जा रहा है . परीक्षा नियमावली का ख्याल रखते हुए हमने पुलीस बुलाया , सम्बंधित विश्वविद्यालय को सूचित भी किया लेकिन दोनों बे असर . न तो पुलीस और न ही विश्वविद्यालय से कुछ सहयोग बन पड़ा .
सवाल यह था कि क्या छात्र आज इतना बिदक गया है कि नक़ल करने कि मांग करे, और न कराने जाने पर शिक्षकों पर आरोप लगायें .
समाज के बदलते मानदंडों के साथ आज सारे रिश्ते बदल रहे हैं तो जाहिर है छात्र - शिक्षक संबंधों पर भी उसकी आंच आनी है. लेकिन इस तरह कि घटना का जिम्मेदार कौन ?
छात्र ?
या फिर हम शिक्षक ...... ? ........................
या फिर समाज ...................................?..................
जवाब चाहे जो हो ..............................
अंतिम परिणति तो यही है कि हम शिक्षक ही परेशां हैं, न तो हम समाज कि आने वाली पौध को सही दिशा न दे पाने के गुरुतर उत्तरदायित्व से बच सकते हैं और न हीं समाज के नाम पर किसी भी बदलाव को सही मान सकते हैं. सही गलत का विवेक और उसके दूरगामी परिणामों कि व्याख्या हमें ही करनी होगी . आत्मावलोकन और पुनर्समीक्षा कि आवश्यकता है नहीं तो समाज का सबसे पुरातन और अति महत्वपूर्ण ढांचा भरभरा कर गिर पड़ेगा और हम सिर्फ दोष और कमियों कि समीक्षा करते रह जायेंगे .
सवाल यह था कि क्या छात्र आज इतना बिदक गया है कि नक़ल करने कि मांग करे, और न कराने जाने पर शिक्षकों पर आरोप लगायें .
समाज के बदलते मानदंडों के साथ आज सारे रिश्ते बदल रहे हैं तो जाहिर है छात्र - शिक्षक संबंधों पर भी उसकी आंच आनी है. लेकिन इस तरह कि घटना का जिम्मेदार कौन ?
छात्र ?
या फिर हम शिक्षक ...... ? ........................
या फिर समाज ...................................?..................
जवाब चाहे जो हो ..............................
अंतिम परिणति तो यही है कि हम शिक्षक ही परेशां हैं, न तो हम समाज कि आने वाली पौध को सही दिशा न दे पाने के गुरुतर उत्तरदायित्व से बच सकते हैं और न हीं समाज के नाम पर किसी भी बदलाव को सही मान सकते हैं. सही गलत का विवेक और उसके दूरगामी परिणामों कि व्याख्या हमें ही करनी होगी . आत्मावलोकन और पुनर्समीक्षा कि आवश्यकता है नहीं तो समाज का सबसे पुरातन और अति महत्वपूर्ण ढांचा भरभरा कर गिर पड़ेगा और हम सिर्फ दोष और कमियों कि समीक्षा करते रह जायेंगे .
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