पिछले ब्लॉग में मैंने श्री अमिताभ जी से हुई वार्ता के बहाने नक्सल समस्या और उसकी व्यथा को लिखने की कोशिश की थी और वादा किया था कि, अगले लेख में अपने विचार रखूंगा . आज की परिस्थितियां उस समस्या को देखने की एक अलग दृष्टी का परिणाम हैं .
जब भी कोई विछुब्द मन किसी व्यवस्थागत परिवर्तन की उम्मीद करता है तो एक विद्रोह या क्रांति जन्म लेती है . हाँ यह भी सही है कि उस विद्रोह या क्रांति का मतलब आतंकवाद नहीं होता , और अगर ट्रेन या बस से अपने किसी परिजन को भेजने के बाद हम भय में जीते हैं तो यह आतंक का दूसरा स्वरुप ही है .
लेकिन कुल मिलाकर इस समस्या को आतंकवाद से जोड़कर देखना समस्या को हल नहीं कर सकता . विशुद्ध पारिवारिक वातावरण में एक कहावत है कि घर के बिगडैल लड़के को पडोसी से मिलने मत दो नहीं तो वह उसे बर्गालायेगा और गलत रस्ते पर डाल देगा . आज नक्सल आन्दोलन से जुड़े कुछ समूह उसी समस्या का शिकार हैं और गलत तरीके से बर्ताव कर रहे हैं. देश और समाज को तोड़ने वाली ताकतें आज घर के विद्रोही बालकों को पडोसी कि तरह बरगला कर गलत रस्ते पे ले जा रही हैं और ताज़ा तरीन घटनाएँ उसी का परिणाम हैं.
हमें सोचना तो यह है कि ----
----------------------'क्या जिद करने वाला बालक उसी समय समझाने पर मान जायेगा' ?
------------------------'क्या शोर करके चिल्लाने वाले बच्चे को हमारा ज्ञान भला लगेगा ?,
.---------------------------शायद नहीं ------------------
और अगर उसी समय उसे नकारात्मक तरीके से पडोसी समझाने लगे तो ............?
या फिर हम डंडा लेकर टूट पड़ें तो .....................?
दोनों परिस्थितियों में आपनी जगह पर ठीक होते हुए भी शायद हम खुद ही आपने बच्चे के दुश्मन होंगे और बरगलाने वाल पडोसी हितैषी बनाने का ढोंग करके उसे और उकसाएगा और शायद उसकी जिद्द और बढेगी .
--------तो फिर क्या किया जाय - ?
कहते हैं बच्चे कि मूल समस्या कि जड़ में जाओ .
जवान बिगड़ी औलादों कि शादी कर दो , नून , तेल , लकड़ी उन्हें रास्ते पर ला देगी .
दूकान खोलवा दो, धंधे पर बैठेगा तो खुद कि चिंता करेगा और बहरी लोगों से मतलब नहीं रखेगा .
कुल मिलाकर उसे रोजगार, परिवार और सामान्य शिष्टाचार का अंग बनाकर उसे मुख्य धारा में जोड़कर ही समस्या को सुलझाया जा सकता है न कि घर से निकालकर , दंड देकर या फिर जहाँ है जैसा है कि परस्थिति में छोड़कर .
दुर्भाग्य से आज तक इस समस्या का समाधान करने के लिए विशुद्ध पारिवारिक तरीकों के बजाय कानूनी तरीकों का सहारा लिया गया और समस्या जस कि तस है .
अब एकबार ऐसे भी करके देखें शायद कुछ समाधान मिल जाय और फिर जो मुख्य धारा में आ जायें उनकी सहायता से आगे कि रणनीति तय कि जा सकती है .
पता नहीं मैं कितना सही सोचता हूँ लेकिन श्री अमिताभ जी ने जो सवाल पुछा था शायद मैंने उसका जवाब अपने तरीके से देने कि कोशिश कि है आगे अमिताभ जी जाने और जनता जनार्दन .
अनुमति दें
आपका
सुधीर के रिन्टन
1 comment:
तपोवन वशिष्ट
सर सर्वप्रथम तोह मैं यह कहना चाहूँगा की जिस प्रकार से आपने नक्सलवाद जैसे विषय को "विशुद्ध पारिवारिक वातावरण की कहावत" से जोड़कर इस समस्या को समझाने के लिए इसका सरलीकरण किया है वह अति प्रशंसनिये है जोह की आप की इस विषय के प्रति गहरी सोच को दर्शता है !
आप के इस लेख को पढने के बाद मैंने यह महसूस किया की नक्सलवाद को आतंकवाद से नहीं बल्कि इस देश की सरकारी नीतियों की असफलता के कारण उपजी एक ऐसी समस्या माना जा सकता है जो अब सरकार से संभाले नहीं संभालती , जिस के लिए आये दिन केंद्र और राज्य सरकारों को आरोप - प्रत्यारोप का खेल खेलते देखा जा सकता है , मुझे ऐसा लगता है की शायद इस देश के राजनेता या फिर यु कहे की इस देश की राजनीति इस मुद्दे को ख़तम होने ही नहीं देना चाहती वरना आप हे बताये की जिस देश की सेना में १८ लाख सक्रिय एवम १४ लाख संरक्षित सैनिक हो उस देश में केवल ५० हज़ार नक्सलवादी कोहराम मचा दे तोह यह बात कुछ जल्दी समझ नहीं आती !
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