टुकड़ा टुकड़ा जिंदगी

Sunday, February 13, 2011

एक ताकत जो भटकाव भी दे सकता है .

 मिडिया और समाज का रिश्ता हरदम रहा है, बदलते सामाजिक मूल्यों के साथ मिडिया ने बहुत बदलाव किये . आज प्रभाव और व्यवस्था की व्याख्या या विमर्श पुराणी बात हो गयी है उब समाज ने मीडिया और मीडिया ने समाज को बराबर प्रभाव में रखा है . समाज के बदलते भौतिक व तकनिकी वातावरण में जहाँ मीडिया ने अपने आपको अपने लक्ष्य समूह के पास पहुँचाने के लिए अपने रंग रूप और कलेवर में बहुतायत बदलाव किये वहीँ आमजन भी अपने व्यस्ततम समय में आधुनिक तकनिकी की मीडिया की ओर ज्यादा ध्यान दिया. नतीजा आज अखबार भी ऑन लाइन पढ़े जाने लगे और इन्टरनेट सबसे कोम्मों मीडिया बना. ट्युनिसिया की क्रांति हो या मिश्र का विरोध प्रदर्शन इन्टरनेट पर uplabdh, सोशल नेट्वोर्किंग साईट्स इसका साधन बनी. इन्टरनेट बोम्ब एक खतरनाक हथियार बना जो सर्कार के खिलाफ उठाया जा सके .
विभिन्न शोध के अनुसार भारत इन्टरनेट use करने वालों में चौथे स्थान पर आता है. इस ऑनलाइन मीडिया ने बहुत शीघ्र सूचना प्रवाह को मूल मंत्र बना कर काम किया . वक्त के लिहाज़ से यह माध्यम अपनी जगह बनाने में कामयाब रहा लेकिन गलती भी हुई और आज इस माध्यम पर सवाल खड़े होने शुरू हुए. एक तरफ आज ऑन लाइन माध्यम ने सुचना प्रवाह के कई विकल्प दिए, आम आदमी को अपना विचार रखने की आज़ादी दी, दूसरों के विचारों से सहमत या न सहमत होने की खुली बहस में शामिल होने या एक नै बहस की शुरुआत करने का विकल्प दिया तो दूसरी तरफ वैचारिक स्तर पर इसने कमज़ोर बनाया . छात्रों का एक बड़ा समूह कोई भी लेख, सामूहिक कार्य या फिर क्रेअटीव इनपुट्स को भुला बैठा है. प्रिंट माध्यम के तरह  की पठनीयता समाप्त हो रही और इन्टरनेट स्तर पर अवलोकन कार्य जारी है. समीक्षा किये बगैर आज इ संसार में उपलब्ध कूड़ा इस्तेमाल हो रहा है. 

सोशल नेट्वोर्किंग साइट्स का तो पूछिए ही मत, मिथ्या प्रलाप के केंद्र मात्र बन कर रह गए हैं ये . याद आता है जब कभी किसी  मुद्दे पर विचारों का आदोलन खड़ा होता था तो सोशल साइट्स पर सवाल और उनके गंभीर जवाब की उम्मीद में हम उन्हें खंगाला करते थे आज वातावरण के बदलाव और मीडिया का उपयोग करने की अर्ध ज्ञान से उपजी इच्छा ने ब्लॉग और इस तरह के माध्यमों पर  अपना कब्ज़ा जमा लिया है. आज कमेंट्स ओछे, स्तरहीन और नितांत सतही हो गए हैं. व्यक्तिगत आग्रह दुराग्रह ज्यादा भारी हैं और असम्बद्ध प्रलाप होने लगे हैं . जब कोईभी माध्यम अपनी जिमीदारियों से मुंह मोड़ता है या फिर अपनी बेसिक सोच बदलता है तो अवश्य एक परिवर्तन की उम्मीद की जा सकती है लेकिन तब ही जब वो वैसा बेहतरी के लिए करे न की एक ग्रुप या फिर कमेन्ट के लिए या किसी के खिलाफ विष वमन करने को. और ऐसे में यदि ऐसा होता है तो निस्संदेह वहां एक संदेह भी खड़ा होगा और वह  संदेह आपकी सामाजिक स्वीकार्यता पर असर डालेगा ऐसे में क्या कोई माध्यम सर उठा सकेगा या फिर वह आगे बढ सकेगा. 

सुधीर के रिन्टन 

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